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दे॒वीऽऊ॒र्जा॑हुती॒ दुघे॑ सु॒दुघेन्द्रे॒ सर॑स्वत्य॒श्विना॑ भि॒षजा॑वतः। शु॒क्रं न ज्योति॒ स्तन॑यो॒राहु॑ती धत्तऽइन्द्रि॒यं व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑ ॥५२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वी इति॑ दे॒वी। ऊ॒र्ज्जाहु॑ती॒ इत्यू॒र्जाऽआहु॑ती। दुघे॒ इति॒ दुघे॑। सु॒दुघेति॑ सु॒ऽदुघा। इन्द्रे॑। सर॑स्वती। अ॒श्विना॑। भि॒षजा॑। अ॒व॒तः॒। शु॒क्रम्। न। ज्योतिः॑। स्तन॑योः। आहु॑ती॒ इत्याऽहु॑ती। ध॒त्त॒। इ॒न्द्रि॒यम्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:52


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! तुम लोग जैसे (देवी) मनोहर (दुघे) उत्तमता पूरण करनेवाली प्रातः सायं वेला वा (इन्द्रे) परम ऐश्वर्य के निमित्तम (ऊर्ज्जाहुती) अन्न की आहुति (सरस्वती) विशेष ज्ञान कराने हारी स्त्री वा (सुदुघा) सुख पूरण करने हारे (भिषजा) अच्छे वैद्य (अश्विना) वा पढ़ाने और उपदेश करने हारे विद्वान् (शुक्रम्) शुद्ध जल के (न) समान (ज्योतिः) प्रकाश की (अवतः) रक्षा करते हैं, वैसे (स्तनयोः) शरीर में स्तनों की जो (आहुती) ग्रहण करने योग्य क्रिया है, उनको (धत्त) धारण करो और (वसुधेयस्य) जिस में धन धरा हुआ उस संसार के बीच (वसुवने) धन के सेवन करनेवाले के लिए (इन्द्रियम्) धन को धारण करो, जिससे उन उक्त पदार्थों को साधारण सब मनुष्य (व्यन्तु) प्राप्त हों। हे गुणों के ग्रहण करने हारे जन ! वैसे तू सब व्यवहारों की (यज) सङ्गति किया कर ॥५२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे अच्छे वैद्य अपने और दूसरों के शरीरों की रक्षा करके वृद्धि करते कराते हैं, वैसे सब को चाहिए कि धन की रक्षा करके उस की वृद्धि करें, जिससे इस संसार में अतुल सुख हो ॥५२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(देवी) कमनीये (ऊर्जाहुती) अन्नस्याहुती (दुघे) प्रपूरके प्रातःसायंवेले (सुदुघा) प्रपूरकौ (इन्द्रे) परमैश्वर्य्ये (सरस्वती) विशेषज्ञानवती (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (भिषजा) सद्वैद्यौ (अवतः) रक्षतः (शुक्रम्) शुद्धं जलम् (न) इव (ज्योतिः) प्रकाशम् (स्तनयोः) (आहुती) आदातव्ये (धत्त) धरत (इन्द्रियम्) धनम् (वसुवने) धनसेविने (वसुधेयस्य) धनाधारस्य संसारस्य मध्ये (व्यन्तु) (यज) ॥५२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वांसो ! यूयं यथा देवी दुघे इन्द्र ऊर्जाहुती सरस्वती सुदुघा भिषजाऽश्विना च शुक्रं न ज्योतिरवतस्तया स्तनयोराहुती धत्त वसुधेयस्य वसुवन इन्द्रियं धत्त येनैतानि सर्वे व्यन्तु। हे गुणग्राहिन् ! तथा त्वं यज ॥५२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सद्वैद्याः स्वानि परेषां च शरीराणि रक्षयित्वा वर्द्धयन्ति तथा सर्वैर्धनं रक्षयित्वा वर्धनीयं येनाऽस्मिन् संसारेऽतुलं सुखं भूयात्॥५२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे चांगले वैद्य आपल्या व इतरांच्या शरीरांचे रक्षण करून त्यांची वृद्धी करवितात, तसेच सर्वांनी धनाचे रक्षण करून त्यात वाढ करावी. त्यामुळे या संसारात अत्यंत सुख प्राप्त होते.